- संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर घोषित किया
- यहां नहीं मारा जाता रावण
इटावा। जिले के जसवंतनगर की 161 वर्ष पुरानी रामलीला कोरोना काल के बाद शुरू हुई। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जसवंतनगर की मैदानी रामलीला का अपने आप एक अलग इतिहास और अलग पहचान रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित एवं युद्ध प्रदर्शन की प्रधानता वाली यहां की रामलीला के आयोजन की शुरुआत हो चुकी है।
खास बात यह है कि आम तौर पर प्रदर्शित की जाने वाली मंचीय रामलीलाओं से पूरी तरह भिन्न जसवंतनगर की मैदानी रामलीला अपनी रोचकता, अनूठेपन एवं अपनी कलात्मक शैली के लिए दुनिया भर में जानी जाती है। दुनिया के विभिन्न देशों में रहने वाले हिंदू समुदाय के लोग यहां की रामलीला के वीडियो व फोटो प्रतिवर्ष यहां से मंगाते रहते हैं। मॉरीशस, त्रिनिदाद और टोबैगो, थाईलैंड और इंडोनेशिया जैसे देशों के रामलीला प्रेमी जसवंतनगर शैली की रामलीला के बड़े मुरीद हैं। यहां लीलाओं का प्रदर्शन अपनी विशेष शैली के अनुरूप किया जाता है। यहां के पात्रों की पोशाकों से लेकर युद्ध प्रदर्शन में प्रयुक्त किए जाने वाले असली ढाल-तलवारों, बरछी-भालों, आसमानी वाणों आदि का आकर्षण दर्शकों को अपने आप इसे देखने के लिए खींच लाता है।
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रामलीला समिति व्यवस्थापक अजेंद्र गौर ने बताया कि कुछ वर्षों पूर्व जब दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप के कैरेबियन देश त्रिनिदाद और टोबैगो (क्रिकेट की शब्दावली में वेस्टइंडीज का एक देश) से रामलीला पर रिसर्च कर रही डॉ. इंद्राणी रामप्रसाद जब यहां की रामलीला का प्रदर्शन देखने के लिए जसवंतनगर पधारीं तो वह यह देखकर आश्चर्यचकित रह गईं कि रामलीला का प्रदर्शन इस तरह भी हो सकता है। बाद में दुनिया की 432 रामलीलाओं का अध्ययन करने के बाद उन्होंने जब अपनी थीसिस लिखी तो उसमें जसवंतनगर की मैदानी रामलीला को उन्होंने दुनिया की सबसे बेहतरीन रामलीला बताते हुए विभिन्न रामलीलाओं का वर्णन किया। बाद में उन्हें त्रिनिदाद विश्वविद्यालय से रामलीला के प्रदर्शन विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इसके बाद पूरी दुनिया के विभिन्न देशों में हिंदू समुदाय के लोगों तक इस रामलीला की खूबियों को व आकर्षण को पहुंचाने का काम किया। इसके बाद ही स्थानीय लोग समझ सके कि हमारी रामलीला दुनिया में बेजोड़ है। यहां रामलीला कार्यक्रमों से लोगों का लगाव भी बहुत है।
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यहां की रामलीला में सारी लीलाएं दिन में होती हैं। राम-लक्ष्मण, सीता रोजाना नरसिंह मंदिर से सजकर कहारों के कंधे पर सजे विमान के जरिये रामलीला मैदान पहुंचते हैं। मेला मैदान और नगर में ध्वनि विस्तारक गूंजने लगे हैं। इटावा की नुमाइश में सजावट करने वाली अलीगढ़ की बिजली कम्पनी ने रामलीला मैदान में सजावट लगभग पूरी हो चुकी है। तीर तलवार, मुखौटे, ड्रेसों आदि को दुरुस्त करने में कारीगर लगे हैं। रावण का विशालकाय सिर भी बनने लगा है। लंका दहन और भरत मिलाप के लिए आतिशबाजी के रिहर्सल के लिए आतिशबाजी चलाने वाले भी आने लगे हैं। बताया गया है कि 10 हजार तीर बनाने का काम भी तेजी से चल रहा है।
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अजेंद्र गौर ने बताया कि यहां दशहरे पर रावण दहन नहीं किया जाता है। इसके पीछे की भी खास वजह है। यहां पर विशालकाय रावण को क्षतिग्रस्त किया जाता है और जिसके बाद रामलीला में आए लोग रावण के टुकड़े अपने-अपने घर ले जाते हैं। सभी की अलग अलग मान्यताएं हैं कि जादू-टोना से बचना, घर मे किसी प्रकार का दोष समस्या का निदान, जैसी मान्यताओं को लेकर रावण की लकड़ियां ले जाई जाती हैं।