सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने नामांकन के अंतिम समय में कन्नौज से पर्चा दाखिल करना एक सधे सुलझे रणनीति का कदम है. यह निर्णय अचानक नहीं लिया गया, इसके पीछे अखिलेश की सोची समझी रणनीति है. कन्नौज लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतर कर सपा सुप्रीमो कई निशाने साध रहे है . कन्नौज सीट से चुनाव लड़कर अखिलेश ने खासकर यादव लैंड को टार्गेट किया है. अखिलेश कन्नौज से यूपी की 10 यादव बहुल सीटों पर खास नजर रखना चाहते हैं . खासकर वह जो कन्नौज के आसपास यादव बाहुल्य सीटें हैं जैसे इटावा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, एटा , फर्रुखाबाद आदि. इत्र के शहर कन्नौज का सियासी तापमान उस वक्त अचानक गर्म हो उठा जब 24 अप्रैल की देर शाम समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का यहां से लोकसभा चुनाव लड़ना तय हुआ. कन्नौज का यूपी और देश की राजनीति में खासा रोल रहा है.
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जहां एक ओर डा राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी विचारक को लोकसभा में चुनकर भेजा. वहीं दूसरी ओर अखिलेश यादव यूपी के और कांग्रेस नेत्री शीला दीक्षित कन्नौज से सांसद बनने के बाद दिल्ली की मुख्यमन्त्री बनी. जबकि मुलायम सिंह यादव मुख्यमन्त्री बनने के बाद कन्नौज के सांसद बने. इस प्रकार तीन मुख्यमंत्रियों का राजनैतिक नाता कन्नौज से रहा है. अखिलेश यादव ने 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालने के लिए इस्तीफा देने से पहले 2000 और 2012 के बीच तीन बार कन्नौज से सांसद के रूप में कार्य किया है. कन्नौज लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार और वर्तमान सांसद सुब्रत पाठक के 25 अप्रैल को नांमांकन करने के करीब एक घंटे बाद अखिलेश यादव ने खास रणनीति के तहत अपना पर्चा दाखिल किया. नामांकन के दौरान अखिलेश यादव जिन प्रस्तावकों और समर्थकों के साथ कलक्ट्रेट पहुंचे, उससे उन्होंने जातीय समीकरण साधते हुए सियासी संदेश भी दिया. उनके साथ जो चार प्रस्तावक रहे, उनमें अलग-अलग जातियों के चेहरे थे.
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दलित समुदाय से पूर्व विधायक कल्याण सिंह दोहरे और पूर्व विधायक अनिल दोहरे के बेटे यश दोहरे रहे. इनके बहाने बसपा के वोट में सेंध लगाने की कोशिश की गई. पिछड़ी जाति से सपा के प्रदेश सचिव आकाश शाक्य रहे. चौथे प्रस्तावक कन्नौज के सपा जिलाध्यक्ष कलीम खान रहे. इसके अलावा अखिलेश यादव पार्टी के पुराने रणनीतिकार के रूप में शामिल ब्रजेंद्र नारायण सक्सेना उर्फ गुड्डू सक्सेना को साथ ले जाना नहीं भूले. ब्राह्मण मतदाताओं को साधने के लिए मनोज दीक्षित और जय तिवारी उर्फ बउअन तिवारी भी नामांकन के दौरान साथ रहे. लोधी समुदाय को साधने के लिए विधूना की विधायक रेखा वर्मा भी मौजूद रहीं. पर्चा दाखिल करने के बाद सपा अध्यक्ष ने कहा, यह चुनाव यहां की नकारात्मक राजनीति को खत्म करेगा और इसके बजाय निस्वार्थ राजनीति को बढ़ावा देगा, प्रेम और सुगंध को बढ़ावा देगा जिसके लिए कन्नौज जाना जाता है. अपने पिता मुलायम सिंह यादव के इस्तीफा देने के एक साल बाद 2000 में अखिलेश पहली बार कन्नौज सीट पर हुए लोकसभा उपचुनाव में उतरे थे. वे यहां से जीतकर सांसद बने. अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव और अखिलेश पांच बार इस सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
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वर्ष 2009 में कन्नौज से लगातार तीसरी बार जीतने वाले अखिलेश यादव 15 साल बाद इस सीट पर फिर से उम्मीदवार बनकर लौटे हैं. अपने ढाई दशक के सियासी करियर में डेढ़ दशक के बाद फिर से कन्नौज से सियासी पारी शुरू करने पहुंचे अखिलेश अपने पहले चुनाव को याद कर भावुक दिखे. नामांकन से ठीक पहले उन्होंने सोशल मीडिया पर कन्नौज से अपने पहले नामांकन की फोटो शेयर की. इस तरह अखिलेश ने पिता मुलायम के अलावा अमर सिंह, आजम खां और जनेश्वर मिश्र को याद करते हुए कन्नौज की जनता से भावनात्मक संबंध स्थापित करने की कोशिश की. राजनीतिक विश्लेषक अखिलेश यादव के कन्नौज से चुनाव लड़ने को एक सधा हुआ कदम मान रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि अखिलेश कन्नौज से चुनाव लड़ते हुए मैनपुरी, एटा, फर्रुखाबाद समेत अलग-अलग लोकसभा सीटों में शामिल कानपुर देहात व औरैया के सभी विधानसभा क्षेत्रों, इटावा, उन्नाव, अकबरपुर समेत बुंदेलखंड तक की सीटों पर सीधे निगाह रख सकेंगे. वर्ष 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए भी इन क्षेत्रों में मददगार व प्रभावी नेताओं की पहचान भी कर सकेंगे.
2014 में यादवलैंड में सपा ने केवल पांच सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की थी. आजमगढ़ और मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव जीते. कन्नौज से डिंपल यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव और बदायूं से धर्मेंद्र यादव. मुलायम सिंह यादव द्वारा मैनपुरी लोकसभा सीट छोड़ने के बाद इसपर हुए लोकसभा उपचुनाव में सपा के तेज प्रताप सिंह यादव उर्फ तेजू चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा का यादव लैंड में अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन था. इस चुनाव में मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव और आजमगढ़ से अखिलेश यादव ही चुनाव जीत सके थे. वहीं वर्ष 2022 के लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ सीट पर भाजपा विजयी हुई.
राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह अन्य पिछड़ी जातियां भाजपा की ओर एकजुट हुईं उससे सपा को विजय दिलाने वाला मुस्लिम-यादव समीकरण का प्रभाव कम हुआ. इसी लिए इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव ने जनाधार बढ़ाने के लिए “पीडीए” यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फॉर्मूला तैयार किया है.” सूबे में मुलायम सिंह यादव के बाद अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बराबर का कोई यादव नेता अब तक किसी बड़े दल के पास नहीं है. भाजपा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को यूपी में ट्रंप कार्ड मानकर चल रही है. उन्हें यादव पट्टी में इसी रणनीति के तहत ले जाया जा रहा है लेकिन ये कितना कामयाब होंगे इस पर राजनीतिक विश्लेषक संशय में हैं. भाजपा की घेरेबंदी के बीच इस लोकसभा चुनाव में यादव बेल्ट में अखिलेश यादव के राजनीतिक रसूख के साथ पीडीए नारे की भी परीक्षा होगी .