आगरा के गेंदा लाल औरैया में बने क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य
औरैया। बहरूपिया बनकर अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने वाले क्रांतिकारी की बात होते ही आपको चंद्रशेखर आजाद याद आ जाते हैं, पर आज आपको ऐसे एक क्रांतिकारी का किस्सा सुनायेंगे, जिसने अंग्रेजों को ऐसा चकमा दिया कि अंग्रेज हाथ मलते रह गए पर वो मरते दम तक उनकी गिरफ्त में नहीं आये। यह क्रांतिकरी थे पंडित गेंदालाल दीक्षित। जिस समय देश के लोगों को अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध खड़ा करने की जद्दोजहद चल रही थी, उस समय इन्होंने डकैतों को इकट्ठा कर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया। उनके इस संगठन ने अंग्रेजी सरकार की नींद हराम कर दी थी।
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15 अगस्त को हम 74 वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। आज के दिन हम स्वतंत्रता संग्राम के उन तमाम क्रांन्तिकारियों/सेनानियों को याद करते है जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपनी कुर्वानियां दीं। ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे गेंदा लाल दीक्षित, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा, महान क्रान्तिकारी व उत्कट राष्ट्रभक्त थे जिन्होंने आम आदमी की बात तो दूर, डाकुओं तक को संगठित करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खडा करने का दुस्साहस किया। दीक्षित जी उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य कहे जाते थे।
जनपद के भारत प्रेरणा मंच के सचिव व कवि अजय अंजाम ने कहा कि चाणक्य ने कहा था कि शिक्षक की गोद में सृजन और प्रलय दोनों पलते हैं। औरैया में शिक्षण कार्य करने आगरा से आये गेंदालाल दीक्षित ने यह बात सौ फीसद सच की। उनकी पाठशाला में छात्र ही नहीं बल्कि बीहड़ के डाकू भी आजादी के नायक बने। वैसे तो गेंदा लाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर 1888 को आगरा जिले की तहसील बाह के ग्राम मई में पं भोलानाथ दीक्षित के पुत्र के रूप में हुआ था लेकिन उनकी कर्म भूमि औरैया बनी। तीन साल की उम्र में मातृ सुख खो देने वाले दीक्षित जी की प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। इटावा से मिडिल और आगरा से मैट्रीकुलेशन करने के बाद शिक्षक हो गए। 1915 में औरैया में झनी विद्यालय (बाद में एवी हाईस्कूल वर्तममान में तिलक इंटर कालेज) में प्रधानाचार्य बनकर आये तो उन्होंने क्रांति का रास्ता चुना।
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मदद नहीं मिली फिर भी जारी रही जंग:-
उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान 1905 में हुए बंग-भंग के बाद चले स्वदेशी आन्दोलन का गेंदालाल दीक्षित पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। इस दौरान वह औरैया शहर के सेठ भीखम चंद्र के पास मदद मांगने गये पर सेठ ने मदद से इनकार कर दिया। क्रांति के इस दौर में गेंदालाल को एक ऐसी योजना सूझी, जो शायद ही किसी को सूझती! उस वक्त चंबल घाटी में डकैतों का बड़ा प्रभाव था, ये डकैत बहादुर तो बहुत थे, पर केवल अपने स्वार्थ के लिए लोगों को लूटते थे। ऐसे में गेंदालाल ने ऐसा उपाय सोचा, जिससे इन डकैतों की बहादुरी और अनुभव का फायदा स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए उठाया जा सकता था। उन्होंने गुप्त रूप से सभी डकैतों को इकट्ठा कर अपनी ‘शिवाजी समिति’ बनाई और शिवाजी की ही भांति उत्तर-प्रदेश में ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ छापामार गतिविधियाँ शुरू कर दी। पंडित गेंदालाल भले ही अपनी गतिविधियाँ चोरी-छिपे करते थे पर क्रांतिकारी नेताओं में वे धीरे-धीरे मशहूर होने लगे।
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जब 21 अंग्रेज सिपाहियों को उतारा मौत के घाट:-
सचिव अंजाम ने बताया कि यह बात सन् 1916 की है जब देश को विदेशी दास्तां से मुक्त कराने के लिए दीक्षित जी ने औरैया की धरती पर मातृवेदी संस्था का गठन कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। उनके दल ने उत्तर प्रदेश के हस्तखांत थाने पर हमलाकर 21 अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। जिससे दीक्षित जी उस समय अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गये और अंग्रेजों ने उनको जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिये पांच लाख इनाम घोषित किया। शहीद ए आजम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, भारतवीर मुकुंदीलाल गुप्त, अशफाक उल्ला खां सहित सभी क्रांतिकारियों ने इनको अपना गुुरु मानते हुए द्रोणाचार्य की उपाधि दी थी।
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विस्मिल से मिल बनायी जेल निकलने की रणनीति:-
उन्होंने बताया कि 13 फरवरी 1919 दीक्षित जी और उनके साथियों पर मैनपुरी षणयंत्र के नाम से मुकदमा दर्ज हुआ और उन्हें ग्वालियर किले में बंद कर दिया गया वहां क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल ने गुप्त रूप से मुलाकात की। उनकी संस्कृत में हुई बातचीत को अंग्रेज पहरेदार न समझ पाये। वहां से उन्हें मैनपुरी भेज दिया गया, जहां पहले से ‘‘बिस्मिल’’ के साथी बन्द थे। यहां दीक्षित जी ने जेलर को पटाकर खुद को उन्हीं साथियों के साथ रखवा लिया, और फिर उन्हीं के साथ जेल से निकल गये।
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अंग्रेजों से जीते लेकिन टीबी ने ली जान:-
औरैया के क्रांतिकारियों के इतिहास पर काम कर रहे भारत प्रेरणा मंच के सचिव कवि अजय अंजाम का कहना है कि इनाम के बाद वह छुप कर दिल्ली में एक प्याऊ पर पानी पिलाते थे और देष की आजादी के लिए आंदोलन को सक्रिय करने के लिए छदृम वेष में क्रांति की गतिविधियां संचालित करते थे। कठिन कार्य व विश्राम न करने से क्षय रोग हो गया था। वह छद्म नाम से सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए, यहां 21 दिसम्बर 1920 को मौत हो गई।
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